Monday, October 2, 2023

1. दोस्त.

 दोस्त   

कितना कुछ देखता हूँ, काफी कुछ सुनता हूँ, 

ना जाने कितना सोचता हूँ, क्या क्या मैं समझता हूँ


फिर भी कुछ पल ऐसे आते है

समझदारी पीछे छोड़ जाते है

मायूसी-सी छा जाती है 

एक अजीब खामोशी लाती है


जिस रास्ते पर चलना नहीं 

जिन हालातों पर ढलना नहीं

कदम उसी दिशा में उठते है 

बेवजह अपने से खुद रूठते है 


ज़िन्दगी के मोड़ बदलते है

मन ले जाए वहां चलते है

कहने को खुला आसमान है

लेकिन अपना तो सुना पड़ा मकान है 


दिल के कमरे में कैद मेरा जहां है 

सिसकते इन लम्हो का अंत कहां है 

सूरज ढलता है सांझ होते होते 

अपनी तो सुबह ही है अँधेरी रोते रोते


तब एक हाथ पीछे से थपथपाता है 

बाहें फैलाये मेरा "दोस्त" मुस्कुराता है

चल कहीं बैठकर चाय पीते है 

दो पल, चार लम्हें, हस्ते हस्ते जीते है 


कितना कुछ देखा है, काफी कुछ सुना है, 

ना जाने कितना सोचा है, क्या क्या मैंने समझा है 

निकालने बैठु इन सब बातों का निष्कर्ष 

सब से अनमोल लगता है उस "दोस्त" का आत्मस्पर्श