चंद सिक्कों की खनक के पीछे,
रिश्तो का सुर कहीं छूट गया..
कुछ बेजान सी चीजें इकठा करते,
मैं मेरे से ही पूरी तरह लूट गया...
महल बनाने की तमन्ना को सराहे,
ना जाने कब घर तूट गया...
औरों को मनाने की कोशिश में था,
वहीं अपना कोई मुझसे रुठ गया...
हांसिल थी जो खुशी, वह अनुभव करने की जगह,
बाहर सुख की तलाश में जुट गया...
अंजाम की फिक्र किसे थी जनाब,
जब आग़ाज़ से ही ऊपर उठ गया।।
रिश्तो का सुर कहीं छूट गया..
कुछ बेजान सी चीजें इकठा करते,
मैं मेरे से ही पूरी तरह लूट गया...
महल बनाने की तमन्ना को सराहे,
ना जाने कब घर तूट गया...
औरों को मनाने की कोशिश में था,
वहीं अपना कोई मुझसे रुठ गया...
हांसिल थी जो खुशी, वह अनुभव करने की जगह,
बाहर सुख की तलाश में जुट गया...
अंजाम की फिक्र किसे थी जनाब,
जब आग़ाज़ से ही ऊपर उठ गया।।