Wednesday, May 28, 2025

3. सहज.

 आज सुबह मंदिर की दान-पेटी कुछ अर्पण करने का मन किया 

तुरंत एक ख़याल आया -

   मंदिर के पास तो काफी धन है तो अब और देने का कोई मतलब नहीं 

   इससे तो अच्छा है बाहर कोई ज़रूरतमंद की सहायता की जाए 

फिर एक और विचार प्रगट हुआ - 

   क्यों ना दोनों काम किये जाए ?!

मेरा लोभ और परिग्रह कम हो यह आशय से मंदिर में कुछ समर्पित किया जाए और किसीके ज़रा से काम में आनेके निमित से कुछ मदद की जाए

पहला काम करके जब मंदिर से बाहर आ रहा था तब सोचा की इस वक़्त कौन मिलेगा जिसकी कुछ सहायता की जा सके 


जैसे ही मंदिर के बहार कदम रखा, ५० - ५२ के करीब का एक इंसान सामने आया

नज़रे मिलते ही उस व्यक्ति ने सौम्य भाव से कुछ शब्द कहे - 

   साहब, यह देखिये मैं कुछ बेच रहा हूँ 

   अगर आप इसे खरीदें तो बड़ी कृपा होगी 

   मेरी माँ का इलाज चल रहा है और पैसो की तंगी है

मैंने पुछा -

   बताओ क्या है?

उस वस्तु के जितने पैसे बन रहे थे उसमे कुछ और जोड़कर मैंने दिए और कहा -

   उपर के लौटाने की ज़रूरत नहीं 

उसकी खुद्दारी और ज़रूरत का द्वंद्व आगे बढे उसके पहले मैंने आखों और होठों के इशारे से उसको अलविदा कहा 

एक पुरुषार्थहीन सरल विचार और कुदरत की बेजोड़ शक्ति काम पर लग गयी 

कितना सहज है सब...

No comments: