मेरा एक दोस्त नेगेटिव सोच का शिकार था। मैं उसे कहता की पॉज़िटिव सोचा कर।
एक दिन उसने मुझे कहा की क्या होगा पॉज़िटिव सोच कर। कुछ भी नहीं होता। सब वैसे का वैसे ही रहता है।
मैंने उसे कहा। दोस्त, एक बात बता। नेगेटिव सोच के क्या होता है? क्या फिर भी सब वैसे का वैसे नहीं रहता? क्या मन में उस दुःख का स्वरुप छोटा हो जाता है या और भी बड़ा हो जाता है?
मन को नेगेटिव सोच की इतनी आदत हो गयी है की जब कोई कहता है की पॉज़िटिव सोचो, तो मन उसको तुरंत अस्वीकार कर देता है। परंतु ये विचार नहीं करता की जैसा वह नेगेटिव सोचता है ठीक उसी तरह वह पॉज़िटिव भी सोच सकता है।
शायद हालात सुधरे नहीं परंतु मन के अंदर ज्यादा बिगड़ेंगे तो नहीं।
एक दिन उसने मुझे कहा की क्या होगा पॉज़िटिव सोच कर। कुछ भी नहीं होता। सब वैसे का वैसे ही रहता है।
मैंने उसे कहा। दोस्त, एक बात बता। नेगेटिव सोच के क्या होता है? क्या फिर भी सब वैसे का वैसे नहीं रहता? क्या मन में उस दुःख का स्वरुप छोटा हो जाता है या और भी बड़ा हो जाता है?
मन को नेगेटिव सोच की इतनी आदत हो गयी है की जब कोई कहता है की पॉज़िटिव सोचो, तो मन उसको तुरंत अस्वीकार कर देता है। परंतु ये विचार नहीं करता की जैसा वह नेगेटिव सोचता है ठीक उसी तरह वह पॉज़िटिव भी सोच सकता है।
शायद हालात सुधरे नहीं परंतु मन के अंदर ज्यादा बिगड़ेंगे तो नहीं।
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